PARTY SYSTEM IN INDIA //पार्टी प्रणाली का क्या महत्व है

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  • राजनीतिक दलों का महत्व  PARTY SYSTEM IN INDIA
    वर्तमान समय में शासन के विविध रूपों में प्रजातन्त्र सबसे अधिक लोकप्रिय है और प्रजातन्त्र शासन के दो
    प्रकार होते हैं—(1) प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र, और (2) अप्रत्यक्ष या प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र । राज्यों जनसंख्या
    और क्षेत्र की विशालता के कारण वर्तमान समय में विश्व के लगभग सभी राज्यों में प्रतिनिध्यात्मक
    प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था ही प्रचलित है। इस शासन व्यवस्था के अन्तर्गत जनता अपने प्रतिनिधियों को
    चुनती है और इन प्रतिनिधियों द्वारा शासन कार्य किया जाता है। जनता द्वारा अपने प्रतिनिधियों के
    निर्वाचन और प्रतिनिधियों द्वारा शासन व्यवस्था के संचालन की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए
    राजनीतिक दलों का अस्तित्व अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था लोकमत पर
    आधारित होती है और राजनीतिक दल लोकमत के निर्माण तथा उसकी अभिव्यक्ति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण
    साधन होते हैं।PARTY SYSTEM IN INDIA //पार्टी प्रणाली का क्या महत्व है

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    दलीय व्यवस्था की विशेषताएं (विकृतियां या दोष)

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    1947 से लेकर 2019 ई. तक के काल में कम-से-कम तीन बार (1967, 1977 तथा 1989 में) ऐसा प्रतीत
    हुआ कि भारत की दलीय व्यवस्था नवीन दिशा ग्रहण करने जा रही है और सम्भवतया अब ;राजनीतिक
    ध्रुवीकरण की स्थिति (द्विदलीय व्यवस्था) प्राप्त हो जाएगी, लेकिन तीनों ही बार ऐसा नहीं हो पाया और
    राजनीतिक दलों की बड़ी संख्या राजनीतिक रंगमंच पर बनी रही।
    पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनावों में जनता ने पुनः राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया तथा राजनीतिक
    दलों के प्रसंग में जनता का सन्देश था कि : हम (जनता) राष्ट्रीय स्तर पर एक दलीय सरकार चाहते हैं।
    लेकिन यदि परिस्थितियों वश मिली-जुली सरकार का निर्माण जरूरी हो जाए, तब क्षेत्रीय दलों को उसमें
    निर्णयकारी भूमिका या शासन पर दबाव डालने की भूमिका प्राप्त नहीं होनी चाहिए। देश में बहुदलीय
    व्यवस्था होते हुए भी जनता राष्ट्रीय स्तर पर दो प्रमुख दलों की व्यवस्था तथा यदि यह सम्भव न हो तो एक
    दल की प्रधानता वाली बहुदलीय व्यवस्था चाहती है। 16वीं एवं 17वीं लोकसभा के चुनावों में जनता ने
    अपनी राजनीतिक परिपक्वता को सिद्ध करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर एक दलीय सरकार की स्थापना की । इन
    चुनावों में भारतीय मतदाताओं ने भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन के पक्ष में जनादेश
    दिया जिसमें स्वयं भाजपा को लोकसभा में क्रमश: 282 एवं 303 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। इन
    चुनावों से भारत में लम्बे समय से चल रहे अत्पमत और गठबन्धन की सरकारों का दौर समाप्त हुआ बहुमत
    वाले किसी एक दल के शासन का युग लौटा।

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  • भारत में सदैव ही बहुदलीय व्यवस्था रही है। इस बहुदलीय व्यवस्था का विकास बहुदलीय
    व्यवस्था में एक दल की प्रधानता  से प्रधानता के लिए दो राजनीतिक दलों या दो राजनीतिक गठबन्धनों
    में प्रतियोगिता तथा अब पुनःबहुदलीय व्यवस्था में एक दल की प्रधानता की दिशा में हुआ है।
    अपवादस्वरूप कुछ समय (1977-79 और 1989-90) को छोड़कर स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर 1996 तक की
    भारतीय राजनीति में कांग्रेस दल को प्रधानता की स्थिति प्राप्त रही है, लेकिन 1989 से ही कांग्रेस की
    लोकप्रियता में कमी और भाजपा की लोकप्रियता में वृद्धि की स्थिति प्रारम्भ हो गई। परिणामतया 1998-
    2003 ई. के वर्षों में भाजपा ने भारतीय राजनीति के सबसे प्रधान दल और गठबन्धन के आधार पर केन्द्र में
  • शासक दल की स्थिति प्राप्त 1 भारत की दलीय व्यवस्था अत्यधिक अस्वस्थता की स्थिति में है और जिन्हें
    ;दलीय व्यवस्था की विशेषताएं कहा जाता है, वस्तुतः वे दलीय व्यवस्था की विकृतियां या दोष हैं।
    अप्रैल-मई 2004 ई. में चौदहवीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए और इन चुनावों के परिणामस्वरूप मे
    शासक दल की स्थिति प्राप्त कर ली । पन्द्रहवीं लोकसभा में कांग्रेस के नेतृत्व में गठित 'संयुक्त प्रगतिशील
    गठबन्धन' को चौदहवीं लोकसभा की तुलना में अधिक स्पष्ट जनादेश प्राप्त था। चुनावों ने इस गठबन्धन
    सरकार
    ने भारतीय राजनीति के सबसे प्रधान दल और कांग्रेस के नेतृत्व में
    मई 2014 एवं मई 2019 में क्रमशः 16वीं एवं 17वीं लोकसभा के चुनावों में जनता ने भाजपा के वाले
    राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन के पक्ष में जनादेश दिया व स्वयं भाजपा को क्रमशः 282 एवं 303 होली के
    साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। इस प्रकार 30 वर्ष बाद किसी पार्टी को अपने बलबूते पर पूर्ण बहुमत माल
    हुआ। इस प्रकार पुन: एक टील की प्रधानता वाली बहुदलीय व्यवस्था का वर्ग कीट आया।
    आज की परिस्थितियों में दलीय व्यवस्था की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं या विकृतियों और दोषों का
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  • उल्लेख निम्न रूपों में किया जा सकता है :
    (1) बहुदलीय व्यवस्था — भारत में ब्रिटेन या अमेरिका की तरह द्विदल पद्धति नहीं, वरन् बहुदलीय पद्धति
    है। भारत की बहुदलीय
    व्यवस्था में 1988 तक लगभग सदैव ही किसी एक राजनीतिक दल को प्रधानता की
    स्थिति प्राप्त रही है, लेकिन 1989 से लेकर 2009 ई. में पन्द्रहवीं लोकसभा का गठन होने के पूर्व तक किसी
    राजनीतिक दल या दलीय गठबन्धन को प्रधानता की स्थिति प्राप्त नहीं रही । चौदहवीं लोकसभा में कांग्रेस
    सबसे बड़ा दल था तथा पन्द्रहवीं लोकसभा में कांग्रेस ने अपनी स्थिति में और सुधार किया।
    भारत
    2014 में सम्पन्न 16वीं लोकसभा चुनावों से ठीक पहले देश में कुल 1687 राजनीतिक दल थे और 464
    दलों ने चुनावों में भाग लिया। जुलाई 2015 में देश में कुल मिलाकर दलों की संख्या 1866 हो गई थी।
    निर्वाचन आयोग के अप्रैल, 2019 के नोटिफिकेशन के अनुसार, देश में 7 राष्ट्रीय दल, 59 राज्य स्तरीय
    मान्यता प्राप्त दल तथा 2,227 पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त दल थे। 7 जून, 2019 को 'नेशनल पीपल्स पार्टी'
    को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिलने से अब 8 राष्ट्रीय दल हो गए हैं। इस प्रकार, कुल मिलाकर दलों की संख्या
    2,294 हो गई।
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  • बहुदलीय व्यवस्था का यह जो रूप है, उसके कारण लोकसभा चुनाव में खण्डित जनादेश (Fractured
    Mandate) ही प्राप्त हो पाता है । ;खण्डित जनादेश का आशय है, लोकसभा में किसी एक राजनीतिक दल
    को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो। ऐसी स्थिति में एकदलीय सरकार का नहीं, वरन् गठबन्धन सरकार का ही गठन
    हो पाता है।
  • सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में लगातार त्रिशंकु जनादेश का इतिहास टूट गया। इन चुनावों में राष्ट्रीय
    जनतान्त्रिक गठबन्धन का नेतृत्व कर रही भाजपा को 282 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ । इस प्रकार
    देश की बहुदलीय व्यवस्था में एक दल की प्रधानता वाली बहुदलीय व्यवस्था पुनः स्थापित हो गयी।
    (2) राजनीतिक दलों में बिखराव, विभाजन और दलीय व्यवस्था में अस्थायित्व — भारतीय राजनीति में न
    केवल अनेक दल हैं, वरन् इन राजनीतिक दलों में बिखराव, विभाजन और अस्थायित्व की स्थिति भी बनी
    ई है। सर्वप्रमुख राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 1969 ई. में विभाजन हुआ और इस विभाजन
    स जन्म लेने वाले राजनीतिक दल सत्ता कांग्रेस का 1978 में, 1978 के विभाजन से जिसकांग्रेस (आई) का
    जन्म हुआ था, उसका विभाजन 1995 तथा 1999 ई. में हुआ। 1977 में सत्तारूढ़ जनता पार्टी कालान्तर म
    चार भागों में विभक्त हो गई।विभाजन और विलय की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप 1988 में जनता दल
    स्थापना हुई और केवल कुछ समय के लिए इस दल ने एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का रूप प्राप्त कर लिया,
    लेकिन नवम्बर39;90 में जनता दल में विभाजन की स्थिति बनी तथा इसके बाद जनता दल में बिखराव और
    विभाजन की प्रक्रिया निरन्तर जारी है। न केवल तथाकथित राष्ट्रीय दल वरन् डी. एम. के., अकाली दल,
    केरल कांग्रेस और शिव सेना जैसे क्षेत्रीय दल भी अनेक टुकड़ों में विभक्त हैं। स्थिति यह है कि आज एक
    राजनीतिक दल जन्म लेता है कल उसमें टूटन, समाप्ति या अन्य किसी दल में उसके विलय की स्थिति पैदा
    हो जाती है। इस प्रकार राजनीतिक दलों में कोई स्थायित्व नहीं है और राजनीतिक चित्र में अस्पष्टता बनी
    हुई है।

    ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ (ONOE) प्रणाली क्या है?

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  • भारत में दलीय व्यवस्था की निश्चित रूप से यह एक बड़ी विकृति है।
    (3) अधिकांश राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र और अनुशासन का अभाव – राजनीतिक दलों के
    प्रसंग में एक खेदजनक तथ्य यह है कि अधिकांश राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव है।
    और वे अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं। अधिकांश राजनीतिक दलों में लम्बे समय से संगठनात्मक चुनाव नहीं
    हुए थे सब कुछ तदर्थ आधार(Adhoc basis) तथा मनोनयन की पद्धति के आधार पर चल रहा था,
    चुनाव आयोग के निर्देश के कारण पहली बार मई जून 1997 में दूसरी बार 2000 ई. में, तीसरी बार
    2003 ई. ● तथा चौथी बार 2006 ई. में तथा पांचवीं बार 2009-10 में राजनीतिक दलों के संगठनात्मक
    चुनाव सम्पन्न हुए। लेकिन इन चुनावों में निश्चित रूप से अनेक कमियां रहीं। सामान्य स्थिति यह है कि दलों
    का निर्माण
    किन्हीं प्रक्रियाओं, मर्यादाओं, सिद्धान्तों या कानूनों के आधार पर नहीं होता और दलों की आय व्यय पण
    कोई लेखा-जोखा सदस्यों के सामने प्रस्तुत नहीं किया जाता।
    (4) संख्या बल की दृष्टि से शक्तिशाली, लेकिन विभाजित विपक्ष – 1967-70 तथा 1977-79 के काल को
    छोड़कर भारतीय राजनीति में सामान्यतया कमजोर और विभाजित विपक्ष की स्थिति ही रही है, लेकिन
    नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनावों ने (1989 से 2009
    ई. के काल में) विपक्ष को संख्या बल की दृष्टि से शक्तिशाली बनाया है ।
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  • बारहवीं और तेरहवीं लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व में मिली जुली सरकार का गठन हुआ और
    मुख्य विपक्षी दल की स्थिति कांग्रेस ने प्राप्त की । बारहवीं तथा तेरहवीं लोकसभा में विपक्ष संख्या बल की
    दृष्टि से शक्तिशाली होते हुए भी एक कमजोरी से पीड़ित था और वह कमजोरी थी, विपक्ष का विभाजित
    होना। विपक्ष की इसी विभाजित स्थिति के कारण अप्रैल 39;99 में विपक्ष ने वाजपेयी सरकार तो गिरा दी,
    लेकिन वह देश को वैकल्पिक सरकार नहीं दे पाया। 14वीं लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल की स्थिति भाजपा
  • को प्राप्त थी और विपक्षी गठबन्धन के रूप में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन था । पन्द्रहवीं लोकसभा में भी
    यही स्थिति थी। 16वीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन को
    ऐतिहासिक सफलता हासिल हुई और भाजपा को स्वयं पूर्ण बहुमत की प्राप्ति हो गई। वहीं कांग्रेस को अब
    तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। इतनी बड़ी हार से मुख्य विपक्षी दल होने का रुतबा भी उसे
    हासिल नहीं हो पाया । उसे केवल 44 सीटों पर ही जीत हासिल हुई, जबकि मान्यता प्राप्त प्रमुख विपक्षी
    दल के लिए कुल लोकसभा सीटों का 10 प्रतिशत यानी 55 सीटें भी उसे नहीं मिलीं। उसे अन्य विपक्षी दलों
    के साथ मिलकर विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करना पड़ा। मई 2019 के 17वीं लोकसभा चुनाव में भी
    कांग्रेस को मात्र 52 स्थान ही लोकसभा में प्राप्त हुए हैं। राज्य स्तर पर अधिकांश राज्यों में विपक्ष पर्याप्त
    शक्तिशाली है।PARTY SYSTEM IN INDIA
    (5) क्षेत्रीय दलों की शक्ति में निरन्तर वृद्धि – 1996-2019 ई. के काल में भारत के राजनीतिक दलों के
    प्रसंग में जो सबसे प्रमुख स्थिति बनी, वह है— क्षेत्रीय दलों की शक्ति में वृद्धि। नवीन संविधान लागू किए
    जाने के कुछ वर्ष बाद से ही भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व रहा है। प्रमुख क्षेत्रीय दल रहे
    हैं—द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी. एम. के.), अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना डी. एम. के.) अकाली दल,
    मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, केरल कांग्रेस, शिव सेना, तेलुगु देशम, समाजवादी पार्टी, बसपा, कांग्रेस
    और नेशनल कॉन्फ्रेंस आदि। इसके अतिरिक्त नगालैण्ड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश तथा
    सिक्किम में तो नगालैण्ड लोकतान्त्रिक दल, मणिपुर पीपुल्स पार्टी और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रण्ट, क्षेत्रीय दल
    ही प्रभावशाली हैं।
    वाईएसआर
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  • 1995 तक स्थिति यह थी कि क्षेत्रीय दल लोकसभा चुनाव में अपनी शक्ति और प्रभाव का सीमित परिचय
    ही दे पाते थे, लेकिन ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं लोकसभा के चुनावों में क्षेत्रीय दलों की
    शक्ति में भारी वृद्धि हुई। इन लोकसभाओं में क्षेत्रीय दलों ने क्रमशः 125, 170, 191 और 171 स्थान प्राप्त
    कर लिए तथा 1996 से लेकर 2014 ई. तक सभी केन्द्रीय सरकारों के गठन तथा कार्यकरण में क्षेत्रीय दलों
    ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ क्षेत्रीय दलों या गुटों ने तो भारतीय राजव्यवस्था में निर्णयकारी स्थिति
    प्राप्त कर ली।
    16वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम क्षेत्रीय दलों के लिए उत्साहवर्धक नहीं रहे। इन चुनावों ने क्षेत्रीय दलों
    को मिले-जुले नतीजे दिए। फिर भी लोकसभा में राज्यस्तरीय दलों के 182 सदस्य पहुंच गये। इन चुनावों में
    डी. एम. के. सहित अधिकांश दलों के तो खाते भी नहीं खुले। समाजवादी पार्टी को पांच, राजद को चार व
    आप पार्टी को भी केवल चार सीटें मिलीं। उत्तर भारत में जाति पर आधारित विभिन्न क्षेत्रीय दलों की
    कमजोर नजर आती है। दूसरी ओर जयललिता (AIADMK), ममता बनर्जी (AITMC) और नवीन
    पटनायक (BJD) ने अपने गढ़ मजबूत कर लिए। इसी प्रकार तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) और तेलुगुदेशम
    पार्टी व वाई. एस. आर. कांग्रेस पार्टी ने भी अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया।
    (6) दलों में आन्तरिक गुटबन्दी — भारत की दल प्रणाली की एक प्रमुख बात (जो वस्तुतः बड़ी बुराई है)
    विभिन्न दलों में आन्तरिक गुटबन्दी है । लगभग सभी राजनीतिक दलों में छोटे-छोटे गुट पाए जाते हैं : एक
    वह जो सत्ता या संगठन के पदों पर आसीन है और दूसरा असन्तुष्ट गुट । इन गुटों में पारस्परिक मतभेद इस
    सीमा तक पाया जाता है कि कभी-कभी चुनावों में एक गुट के समर्थन प्राप्त उम्मीदवारों को दूसरे गुट के
  • सदस्य पराजित करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। कांग्रेस और भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों में यही
    स्थिति है। विशिष्ट विचारधारा पर आधारित मार्क्सवादी दल और अन्य वामपंथी दल भी गुटबन्दी से मुक्त
    नहीं हैं तथा सभी क्षेत्रीय दल भी आन्तरिक गुटबन्दी से गंभीर रूप में ग्रस्त हैं। पश्चिमी देशों के राजनीतिक
    दलों की तुलना में भारत के राजनीतिक दलों में गुटबन्दी बहुत तीव्र है। शासक दल और अन्य दलों में
    गुटबन्दी की यह स्थिति भारतीय राजनीति का अभिशाप बनी हुई है।PARTY SYSTEM IN INDIA
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  • (7) राजनीतिक दलों की नीतियों और कार्यक्रम में स्पष्ट भेद का अभाव – भारत के राजनीतिक दलों की
    नीतियों और कार्यक्रमों में स्पष्ट भेद का अभाव है और इसी कारण वे जनता के सम्मुख स्पष्ट विकल्प प्रस्तुत
    करने में असफल रहे हैं। वस्तुतः राजनीतिक दलों की नीतियां और कार्यक्रम अत्यधिक अस्पष्ट और अनिश्चित
    हैं। कुछ राजनीतिक दलों के पास अपना कोई निश्चित कार्यक्रम न होने के कारण उनके द्वारा अनावश्यक रूप
    में आन्दोलनकारी राजनीति को अपनाया जाता है और विघटनकारी तत्वों को प्रोत्साहित किया जाता है।
    आज स्थिति यह है कि आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम नहीं वरन् मन्दिर-मस्जिद विवाद; और जातिवादी
    गठजोड़ सामान्य जन की भाषा में ;कमण्डल और मण्डल राजनीतिक दलों की पहचान बन गए हैं।
    वस्तुस्थिति यह है कि सत्ता ही सभी राजनीतिक दलों का असली धर्म है। 16वीं एवं 17वीं लोकसभा के
    चुनावों (2014 एवं 2019) में इस बार जाति व धर्म मुहावरों का कम प्रयोग हुआ है और जिन दलों ने
    जाति के आधार पर मतदाताओं को बांटने एवं वोट बटोरने की कोशिश की वे बुरी तरह मात खा गये। यह
    हमारे लोकतंत्र एवं दलीय व्यवस्था के लिए शुभ संकेत है।
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  • (8) राजनीतिक दल-बदल – भारत में दल-बदल की स्थिति सदैव से विद्यमान रही है, लेकिन 1967 से 70
    और पुनः 1977-79 के वर्षों में यह प्रवृत्ति बहुत अधिक भीषण रूप में देखी गई। दल-बदल राजनीतिक
    अस्थिरता का कारण और परिणाम, दोनों ही रहा है और इसने राजनीतिक वातावरण को दूषित करने का
    ही कार्य किया है। अतः लम्बे समय से दल-बदल पर रोक लगाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी
    और जनवरी, 1985 में भारतीय संविधान में 52वां संवैधानिक संशोधन कर दल-बदल पर कानूनी रोक
    लगा दी गई, लेकिन इस कानून में प्रावधान है कि एक राजनीतिक दल के विभाजन और एक राजनीतिक
    दल के दूसरे राजनीतिक दल में विलय को दल-बदल नहीं समझा जाएगा। ऐसी स्थिति में विभाजन और
    विलय के नाम पर दल-बदल की स्थिति बनी रही। 91वें संवैधानिक संशोधन (2003) के आधार पर दल-
    बदल पर पूर्णतया रोक लगाने की चेष्टा की गई, लेकिन अब भी एक राजनीतिक दल के दूसरे राजनीतिक
    दल में विलय के नाम पर दल-बदल किया जा सकता है और किया जा रहा है। विधानसभा सदस्यों के दल-
    बदल के बाद इस बात को लेकर कानूनी और राजनीतिक विवाद जन्म लेते हैं कि यह स्थिति दल-बदल है या
    विधि सम्मत विभाजन और विलय। वस्तुतः दल-बदल पर प्रभावी रोक तभी सम्भव है जबकि राजनीतिक
    दल विशिष्ट विच आधारित हों, संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर उनकी संख्या को सीमित नियन्त्रित
    किया जाए और

    current affairs 2023//करंट अफेयर्स क्यों महत्वपूर्ण है

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  • सभी राजनीतिक दल आचार-संहिता को अपनाएं।
    v- सभी लोकतान्त्रिक (9) सभी राजनीतिक दलों और राजनीतिक अभिजन की कथनी और करनी में भारी
    अन्तर- देशों के राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की कथनी और करनी में अन्तर देखा गया है, लेकिन
    भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं की कथनी और करनी में जैसा भीषण अन्तर अभी हाल ही के वर्षों में
    देखा गया है, वैसा अन्यत्र और विशेष रूप से विकसित लोकतान्त्रिक देशों में देख पाना सम्भव नहीं है। सभी
    ने लोक लुभावन मुखौटे; ओढ़ रखे हैं, लेकिन वस्तुतः ये सत्ता के प्रति और केवल स्वयं के प्रति समर्पित हैं।
  • सभी दलों और नेताओं में ईमानदारी का घोर अभाव है, परिणामतया ये सभी जनता में विश्वसनीयता खोते
    जा रहे हैं, यह चिन्ताजनक स्थिति है।
    ;
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  • दलीय व्यवस्था की विशेषताएं शीर्षक से जिन बातों का उल्लेख किया गया है, वे अधिकांश में राजनीतिक
    दलों की विकृतियां ही हैं। गत दो दशकों में दो अन्य विकृतियों ने अधिक प्रबलता प्राप्त कर ली है, ये हैं :
    (वामपंथी दलों के अतिरिक्त सम्भवतया सभी दलों में) व्यक्ति की प्रधानता हो गई है, उनमें वंशानुगत नेतृत्व
    (10) मैं और मेरा परिवार (वंशानुगत नेतृत्व ) की प्रवृत्ति- भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में की
    प्रवृत्ति है और राजनीतिक दलों के छोटे-बड़े नेतागण अपने ही पारिवारिक सदस्यों को आगे बढ़ाने की चेष्टा
    में लगे हुए हैं। राजनीति एक पारिवारिक कार्य, पारिवारिक व्यवसाय बनता जा रहा है। परिणामतया
    जमीन से गहरे रूप से जुड़े और दो या तीन दशक से राजनीतिक तपस्या कर रहे सक्रिय कार्यकर्ता गहरी
    हताशा नेतृत्व है और भाजपा में अध्यक्ष पद पर वाजपेयी या आडवाणी हों या कोई और लगभग तीन दशक
    से और निराशा का अनुभव कर रहे हैं। कांग्रेस में अपवादस्वरूप समय को छोड़कर चार पीढ़ी से वजनान
    सर्वोच्च स्थिति वाजपेयी तथा आडवाणी को ही प्राप्त थी । राजद, समाजवादी पार्टी, शिव सेना, लोक
    जनशक्ति पार्टी, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, लोकदल, नेशनल कांफ्रेंस, द्रमुक, शिरोमणि अकाली दल, पीपुल्स
    डेमोक्रेटिक पार्टी, पीएमके, एमडीएमके और राष्ट्रीय लोकदल आदि सभी राजनीतिक दल इस रोग से ग्रसित
    हैं। पन्द्रहवी लोकसभा तथा उसके बाद सम्पन्न विधानसभा चुनावों में परिवारवाद कुछ और आगे ही बढ़ा है
    तथा सम्भवतया जनता ने भी इसे स्वीकार कर लिया है। 16वीं एवं 17वीं लोकसभा में भी बड़ी संख्या में
    राजनीतिक परिवारों से जुड़े उम्मीदवार चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे हैं।
    (11) राजनीतिक दलों और राजनीतिक जीवन में अपराधी तत्वों और गतिविधियों में निरन्तर वृद्धि-भारत
    के राजनीतिक दलों और राजनीतिक जीवन की यह सबसे अधिक प्रमुख विकृति और भविष्य की दृष्टि से
    चिन्ताजनक स्थिति है। राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक जीवन की स्वच्छता-विशुद्धता ने अपना महत्व
    खो दिया है; एक ही उद्देश्य रह गया है 'येन केन प्रकारेण' अपने प्रभाव में वृद्धि और सत्ता प्राप्ति।
    परिणामतया राजनीतिक दलों में अपराधी तत्वों की संख्या, उनके प्रभाव और उनके वर्चस्व में निरन्तर
    वृद्धि हुई। पन्द्रहवीं लोकसभा में केवल कुछ अति विख्यात या अति कुविख्यात माफियाओं का ही सफाया
    हुआ था। पन्द्रहवीं लोकसभा के 162 सदस्यों पर फौजदारी अभियोग था तथा इनमें से 73 पर तो बहुत
    गम्भीर अपराधों (हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि) के लिए मुकदमे चल रहे थे। 16वीं लोकसभा में भी
    अपराधी पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में वृद्धि हुई तथा 543 सांसदों में से 186 के खिलाफ कोई-न-कोई
    आपराधिक केस दर्ज था। 2019 में गठित 17वीं लोकसभा के 539 सदस्यों में से 233 (34%) पर
    आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। सभी राजनीतिक दलों में यह प्रवृत्ति है। राष्ट्रीय दलों की तुलना में क्षेत्रीय
    दलों में यह प्रवृत्ति अधिक है। अपराधी तत्वों ने दलीय संगठन में महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर ली है, संसद
    सहित सभी स्तर की प्रतिनिधि संस्थाओं में उनकी संख्या बढ़ रही है और केवल राज्य स्तर की मन्त्रिपरिषदों
    में ही नहीं, वरनू अनेक बार केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में भी संदिग्ध चरित्र के व्यक्ति आसीन रहे हैं। स्थिति पर
    नियन्त्रण तभी सम्भव है जबकि सभी राजनीतिक दल 'शुद्धि यज्ञ' के मार्ग को पूरी सजगता, निष्पक्षता और
    आवश्यक कठोरता के साथ अपनाएं।PARTY SYSTEM IN INDIA
    राजनीतिक दलों और दलीय व्यवस्था का उद्देश्य होता है देश की जनता के सामने अपनी विचारधारा,
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  • नीति, कार्यक्रम और कार्ययोजना प्रस्तुत कर देश की जनता का विश्वास, दूसरे शब्दों में सत्ता प्राप्त करना
  • लेकिन यह
    तथा देश के हित को सर्वोच्च महत्व देते हुए अपनी नीति और कार्यक्रम को कार्यान्वित करना, लम्बा रास्ता
    है। इस मार्ग को सही रूप में अपनाने के लिए कर्म निष्ठता, कर्मठता, राजनीतिक तप-त्याग और जनता के
    प्रति समर्पण को अपनाना होता है। राजनीतिक दल और उनके नेता इस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं। न तो
    देश का हित उनके लिए सर्वोच्च है और न ही उन्होंने अपने मानस में किसी नीति अथवा कार्यक्रम को
    अपनाया है। उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना है। सत्ता प्राप्त करने के लिए निष्ठा, नीति और कार्यक्रम
    के लम्बे राजमार्ग पर चलने का धैर्य और साहस उनमें नहीं है ।
    वे घोर अवसरवादी हैं, उनमें से अधिकांश ने राजनीति को सेवा भावना के आधार पर नहीं, वरन् व्यवसाय
    और पारिवारिक व्यवसाय के रूप में अपनाया हुआ है। इस मानसिक पृष्ठभूमि में ये राजनीतिक दल उनके
    नेताराजनीतिक शार्टकट तलाश रहे हैं। अपराधी हो, कोरा व्यवसायी हो या अन्य किसी श्रेणी का समाज
    कण्टक; वे किसी के भी साथ जुड़ने के लिए तैयार हैं आए दिन हड़तालों, रैलियों और यात्राओं का आयोजन
    उनका शगल है। भारत के राजनीतिक दलों की उपर्युक्त विकृतियों और समस्त स्थिति को देखकर हम यह
    सोचने और कहने के लिए बाध्य हैं कि ये सभी राजनीतिक दल अपने मूल उद्देश्य को भूल गए है अपने मूल
    उद्देश्य से दूर, बहुत दूर भटक गए हैं, अनजाने में नहीं, वरन् जानबूझकर अपने नितान्त संकुचित स्वार्थों से
    प्रेरित चालित होकर भटके हैं।
    विभिन्न राजनीतिक दलों की नीति तथा कार्यक्रम
    1984 के अन्त तक राजनीतिक दल चुनाव चिह्न आवंटित करने के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में संवैधानिक
    और कानूनी व्यवस्था के अंग नहीं थे। 1985 के दल-बदल निषेध कानून के साथ राजनीतिक दल वैधानिक
    व्यवस्था के अंग बन गए। 1989 में व्यवस्था की गयी कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 के
    अनुसार सभी राजनीतिक दलों के लिए संविधान के प्रति और समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतन्त्र के
    प्रति निष्ठा घोषित करना जरूरी है। इस प्रकार अब भारत में राजनीतिक दल वैधानिक व्यवस्था के अंग बन
    की तीन श्रेणियां बनाई हैं— (1) राष्ट्रीय दल या अखिल भारतीय दल, (2) राज्य स्तरीय दल, गए हैं।
    राजनीतिक दलों के लिए चुनाव आयोग में पंजीयन आवश्यक है। चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों
    प्राप्त पंजीकृत दल ।PARTY SYSTEM IN INDIA
  • PARTY SYSTEM IN INDIA

  • राष्ट्रीय दल
    और (3) अमान्यता
    राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता का आधार चुनाव चिह्न (संरक्षण और आवंटन) आदेश 1968; में चुनाव
    आयोग द्वारा 2 दिसम्बर, 2000 ई. को महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए थे, अब 14 मई, 2005 ई. को इसमें
    पुनः परिवर्तन किए गए हैं। अब किसी दल को राष्ट्रीय दल की मान्यता तभी प्राप्त होगी, जबकि वह निम्न
    तीन में से कोई एक शर्त पूरी करता हो :
    (1) गत लोकसभा चुनाव या राज्य विधानसभा चुनावों में सम्बन्धित दल के उम्मीदवार चार या अधिक
    राज्यों में से प्रत्येक में प्रयुक्त वैध मतों का कम से कम 6 प्रतिशत प्राप्त करें तथा इनमें से किसी एक राज्य या
    राज्यों से उसके कम-से-कम चार सदस्य लोकसभा के लिए निर्वाचित हों।
  • (2) गत आम चुनावों में वह दल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के कम-से-कम दो प्रतिशत स्थान प्राप्त कर
    लें, बशर्ते कि ये लोकसभा स्थान कम-से-कम तीन राज्यों से प्राप्त किए गए हों ।
    (3) यदि दल को कम-से-कम चार राज्यों में राज्य दल की मान्यता प्राप्त हो ।
    चुनाव आयोग ने अपनी विज्ञप्ति में कहा कि ;इस विज्ञप्ति को 1 मार्च, 2004 ई. से कार्य रूप में लागू समझा
    जाए।PARTY SYSTEM IN INDIA //पार्टी प्रणाली का क्या महत्व है
  • PARTY SYSTEM IN INDIA

  • 16वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों तथा उसके उपरान्त की राजनीतिक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए
    चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को 17वीं लोकसभा चुनाव के सन्दर्भ में राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता
    प्रदान की। ये दल थे : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, मार्क्सवादी दल, भारतीय साम्यवादी
    दल, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस, 7 जून, 2019 को
  • national पीपल्स पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा प्रदान किया गया जिससे वर्तमान में देश में 8 राष्ट्रीय दल हैं।                                                                                                                        RELETED LINK

    करप्शन परसेप्शन इंडेक्स 2022//क्या है करप्शन परसेप्शन इंडेक्स?

    Not losing steam: On latest industrial output estimates

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