राज्यस्तरीय दल // क्षेत्रीय दल केसे राजनीति को प्रभावित करता है

राज्यस्तरीय दल

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राज्यस्तरीय दल  की मान्यता का आधार चुनाव चिह्न (संरक्षण और आवण्टन) आदेश आयोग
द्वारा 2 दिसम्बर, 2000 ई. को महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए थे, अब 14 मई, 1968 में चुनाव 2005 ई.
को इसमें पुनः परिवर्तन किए गए हैं। इस आदेश के अनुसार राज्य दल की मान्यता तभी प्राप्त होगी, जबकि
वह दल निम्नांकित में से कोई एक शर्त पूरी करता हो :
1. राजनीतिक दल विधानसभा के गत आम चुनाव में राज्य विशेष में कुल प्रयुक्त वैध मतों का कम-से-कम 6
प्रतिशत प्राप्त कर ले तथा उसे उस राज्य की विधानसभा में कम से कम दो स्थान प्राप्त हों।
2. उस राजनीतिक दल के उम्मीदवार लोकसभा के गत आम चुनाव में कुल प्रयुक्त वैध मतों का कम-से-कम
6 प्रतिशत प्राप्त कर ले तथा इसके साथ उस दल का कम-से-कम एक सदस्य उस राज्य से लोकसभा के लिए
निर्वाचित हों।
3. वह राजनीतिक दल विधानसभा के गत आमचुनाव में विधानसभा के कम-से-कम 3 प्रतिशत स्थान या
कम से कम तीन स्थान इन दोनों में से जो अधिक हो, वह प्राप्त कर ले।
जाए।
यह भी उल्लेख किया गया है कि इस विज्ञप्ति को 1 मार्च, 2004 ई. से कार्य रूप में लागू समझा

ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं लोकसभा चुनाव की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति राज्य स्तरीय दलों की
शक्ति में भारी वृद्धि रही। राष्ट्रीय दलों और क्षेत्रीय दलों की शक्ति में समय-समय पर भारी परिवर्तन होता
रहा है और परिवर्तन होता रहेगा। आज जिस राजनीतिक दल को केवल एक राज्य में राज्य दल की स्थिति
प्राप्त है, उसे आगे चलकर एक से अधिक राज्य में राज्य दल की स्थिति प्राप्त हो सकती है तथा इससे आगे
बढ़कर वह राष्ट्रीय दल की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार निर्धारित मापदण्ड की दृष्टि से जन
समर्थन में कमी आने पर राष्ट्रीय दल, राष्ट्रीय दल की स्थिति और राज्य दल, राज्य दल की स्थिति खो देता
है।

राज्यस्तरीय दल

क्षेत्रीय दलों (राज्य दलों) के लक्षण

1. इनकी शक्ति प्रमुख रूप से उस राज्य विशेष तक सीमित होती है जिस राज्य में उन्हें क्षेत्रीय या राज्य दल
की मान्यता प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए, जनता दल (यू.) का प्रमुख प्रभाव क्षेत्र बिहार राज्य और
समाजवादी दल का प्रमुख प्रभाव क्षेत्र उत्तर प्रदेश राज्य है।
2. क्षेत्रीय दल नीति निर्धारण में उस राज्य विशेष के हितों को या उन राज्यों के हितों को विशेष रूप से
ध्यान में रखते हैं, जिस राज्य में उन्हें क्षेत्रीय दल की स्थिति प्राप्त होती है, लेकिन इस बात का यह आशय
नहीं लिया जा सकता कि वे राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करते हैं।
3. केन्द्रीय सत्ता में भागीदारी प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय दल, अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ या किसी राष्ट्रीय
दल के साथ सहयोग अथवा गठबन्धन की नीति और स्थितियों को अपनाते हैं। इस प्रसंग में समय-समय पर
उनके द्वारा अपनी स्थिति में परिवर्तन किया जा सकता है।
4. भारतीय राजनीति में अनेक बार इस विचार को अपना लिया जाता है कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय एकता को
कमजोर करते हैं। वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं है। विविधताओं से भरे भारत देश में अनेक बार क्षेत्रीय दल
राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का कार्य राष्ट्रीय दलों की तुलना में भी अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न कर
पाते हैं। राष्ट्रीय दल हो या क्षेत्रीय दल कोई दल राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगा या कमजोर, यह बात दल
की नीति और घोषित नीति की तुलना में भी अधिक सीमा तक उसके कार्यकरण पर निर्भर करती है। क्षेत्रीय
दल केवल एक स्थिति में राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचाने का कारण बनते हैं और वह स्थिति है : राष्ट्रीय
हितों के मूल्य पर क्षेत्रीय हितों को पूरा करने की चेष्टा करना।
1. डी. एम. के, अकाली दल, नेशनल कॉन्फ्रेन्स, शिव सेना, समाजवादी दल, राष्ट्रीय जनता दल आदि ये
सभी दल राज्यस्तरीय दल हैं। ये अलग-अलग राज्यों में प्रभावशाली हैं न कि किसी क्षेत्र विशेष में। इस दृष्टि
से इन्हें राज्यस्तरीय वल ही कहा जाना चाहिए। व्यावहारिक राजनीति और जन व्यवहार में क्षेत्रीय दल
शब्द का प्रचलन हो गया है।
2. Election Commission of India, Notification 14th May, 2005 No. 56/2005/JS-III.
आज की परिस्थितियों में भारतीय राजनीति में अनेक क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व तथा उनकी निरन्तर बढ़ती
हुई शक्ति नितान्त स्वाभाविक स्थिति है। इस स्थिति के लिए भारत के राष्ट्रीय दल, विशेष रूप से कांग्रेस
और भाजपा दोनों ही राजनीतिक दलों की अपूर्णताएं, कमियां और दोष ही उत्तरदायी हैं। राष्ट्रीय दल और

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क्षेत्रीय दल में मुख्य अन्तर

1. राष्ट्रीय दल की विचारधारा, नीति और कार्यक्रम सम्पूर्ण भारत की स्थिति को ध्यान में रखकर निर्धारित
किया जाता है, क्षेत्रीय दल अपने राज्य या क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों को विशेष रूप से ध्यान में रखता
है। इसी कारण कभी-कभी क्षेत्रीय दल या दलों द्वारा 'आक्रामक क्षेत्रवाद' की नीति और कार्यक्रम को अपना
लिया जाता है। उदाहरण के लिए, राज ठाकरे और उनके राजनीतिक दल 'महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना' ने
2008-09 ई. में उत्तर भारतीयों के विरुद्ध जहर उगलते हुए ऐसा ही किया, लेकिन सभी क्षेत्रीय दल ऐसा
आचरण नहीं करते।
2. राष्ट्रीय दल का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारत होता है। क्षेत्रीय दल का कार्यक्षेत्र एक या एक से अधिक राज्य,
लेकिन क्षेत्रीय दल अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर राष्ट्रीय दल की स्थिति पाने का प्रयत्न अवश्य ही करता
है।
3. सामान्यतया क्षेत्रीय दल की शक्ति राष्ट्रीय दल की तुलना में कम होती है, लेकिन इस स्थिति के अपवाद
हो सकते हैं और व्यवहार में होते भी है। भारतीय साम्यवादी दल एक राष्ट्रीय दल है, लेकिन इसकी तुलना में
समाजवादी दल, डी. एम. के. और अन्ना डी. एम. के. को पन्द्रहवीं लोकसभा में अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त
था। इसी प्रकार 16वीं लोकसभा में ए. आई. ए. डी. एम. के. व तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, शिव सेना,
तेलुगुदेशम जैसे क्षेत्रीय दलों को सी. पी. आई., सी. पी. आई (एम) और एन. सी. पी. जैसे दलों से अधिक
स्थान प्राप्त हुए हैं।
व्यवहार में स्थिति यह है कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था है और बहुदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत वैधानिक
दृष्टि से तो इनमें अन्तर बना रहता है, लेकिन व्यवहार में यह अन्तर बहुत कम रह जाता है।
क्षेत्रीय दलों की शक्ति में वृद्धि
नवीन संविधान लागू किए जाने के कुछ वर्ष बाद से ही भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व रहा
है। प्रमुख क्षेत्रीय दल रहे हैं – द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी. एम. के.), अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना डी. एम.
के.) अकाली दल, मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, केरल कांग्रेस, शिव सेना, तेलुगुदेशम और नेशनल
कान्फ्रेंस, आदि। इसके अतिरिक्त नगालैण्ड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश तथा सिक्किम में
तो नगालैण्ड लोकतान्त्रिक दल, मणिपुर पीपुल्स पार्टी और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रण्ट, आदि क्षेत्रीय दल ही
प्रभावशाली हैं।
अब तक स्थिति यह थी कि क्षेत्रीय दल लोकसभा चुनाव में अपनी शक्ति और प्रभाव का सीमित परिचय ही
दे पाते थे, लेकिन ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनावों में क्षेत्रीय दलों
की शक्ति में भारी वृद्धि हुई । ग्यारहवीं लोकसभा में क्षेत्रीय दलों ने 125, बारहवीं लोकसभा में 170,
तेरहवीं लोकसभा में कुल मिलाकर 190 से अधिक, चौदहवीं लोकसभा में क्षेत्रीय दलों और अन्य पंजीकृत
दलों ने 171 तथा पन्द्रहवीं लोकसभा में 158 स्थान प्राप्त किए। 1996 से लेकर 2009 ई. तक केन्द्र में जो
भी सरकारें बनीं, उन सभी सरकारों के गठन तथा कार्यकरण में क्षेत्रीय दलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस प्रकार क्षेत्रीय दलों या गुटों ने भारतीय राज व्यवस्था में निर्णयकारी स्थिति प्राप्त कर ली। 16वीं
लोकसभा के चुनावों में क्षेत्रीय दलों की स्थिति मिली-जुली रही है। इन चुनावों में जहां बसपा, डी. एम. के.,
समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यू) व नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसे दलों की स्थिति कमजोर हो
गयी है, वहीं दूसरी ओर ए. आई. ए. डी. एम. के., तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल तेलुगुदेशम जैसे दलों की

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राज्यस्तरीय दल

स्थिति सुदृढ़ हुई है। लेकिन इन दलों को सरकार से मोल-भाव करने का कोई मौका नहीं मिलेगा। राजग में
भाजपा को स्वयं लोकसभा में पूर्ण बहुमत की स्थिति प्राप्त है।
राज्य-स्तरीय दलों (क्षेत्रीय दलों) की शक्ति में वृद्धि के कारण
राज्यस्तरीय दलों की शक्ति में निरन्तर वृद्धि भारतीय राजनीति का एक तथ्य है तथा इन दलों के उदय और
इनकी शक्ति में वृद्धि के कुछ विशेष कारण अग्रलिखित रहे हैं :
1. कांग्रेस के प्रभाव और शक्ति में कमी तथा अन्य राष्ट्रीय दलों की असफलताएं- 1966 तक कांग्रेस को
लगभग सम्पूर्ण भारत में भारी प्रभाव और शक्ति प्राप्त थी, अतः केवल कुछ ही क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ
तथा वे क्षेत्रीय दल भी अपने प्रभाव का विस्तार नहीं कर पाए । विविध कारणों से 1966 से कांग्रेस की
शक्ति में कमी आना प्रारम्भ हुआ भारतीय संघ के कुछ राज्यों में यह कमी अधिक आई, राष्ट्रीय दल कहे जाने
वाले अन्य दल इस रिक्तता को भर नहीं पाए और स्वाभाविक रूप से राज्यस्तरीय दलों ने जन्म लिया ।
आज भी स्थिति यही है। केन्द्र में सत्ता के दावेदार दो प्रमुख दल हैं— कांग्रेस और भाजपा, लेकिन उत्तर
प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु और प. बंगाल जैसे विशाल राज्यों और अनेक छोटे राज्यों में ये दल राज्यस्तरीय
दलों से अलग रहकर सत्ता के सही दावेदार नहीं बन पाते हैं।
2. कुछ प्रमुख राजस्तरीय नेता तथा उनके व्यक्तित्व का प्रभाव – ' व्यक्तित्व आधारित राजनीति' सदैव से ही
भारतीय राजनीति का एक तत्व रहा है और भारतीय संघ के विभिन्न राज्यों में राज्य स्तर के प्रभावशाली
व्यक्तियों ने राज्यस्तरीय दलों का गठन किया तथा अपने व्यक्तित्व के आधार पर दल की शक्ति को बढ़ाया।
वर्तमान समय में समाजवादी पार्टी (मुलायम सिंह), राजद (लालू यादव), अकाली दल (प्रकाश सिंह बादल),
डीएमके (करुणानिधि), अन्ना डीएमके (जयललिता), शिवसेना (बाल ठाकरे, तदुपरान्त उद्धव ठाकरे),
नेशनल कान्फ्रेन्स (शेख अब्दुल्ला और तदुपरान्त फारुक अब्दुल्ला), तृणमूल कांग्रेस (ममता बनर्जी) और लोक
जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान ) के व्यक्तित्व पर आधारित है । तेलुगु देशम् को एन टी आर ने जन्म
दिया और चन्द्रबाबू नायडू के व्यक्तित्व ने उसकी स्थिति को बनाए रखा।

राज्यस्तरीय दल

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3. राष्ट्रीय दलों, विशेषतया कांग्रेस का मनमाना व्यवहार और क्षेत्रीय आकांक्षाएं – भारतीय राजनीति में
अनेक बार यह देखा गया है कि राष्ट्रीय दलों, विशेषतया कांग्रेस ने मुख्यमन्त्री ऊपर से थोपे ऐसे व्यक्तियों को
मुख्यमन्त्री बनाया, जिन्हें बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं था, मुख्यमन्त्री बार-बार बदले और राज्य राजनीति
में अनावश्यक तथा अनुचित रूप से हस्तक्षेप किए। आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सातवें-आठवें
दशक में इन्हीं स्थितियों को अपनाया गया। ऐसी स्थिति में एन. टी. रामाराव ने तेलुगु आत्मगौरव की रक्षा
के नाम पर ‘तेलुगुदेशम्' की स्थापना की । उ. प्र., बिहार और पंजाब जैसे राज्यों में भी कांग्रेस आला कमान
ने अनुचित, अनावश्यक और मनमाने हस्तक्षेप किए, जिसके परिणामस्वरूप राज्य स्तर पर कांग्रेस कमजोर
हुई और क्षेत्रीय दलों को बल मिला। भाजपा ने विशेष रूप से 1994-2005 ई. के वर्षों में उ.प्र. में यही भूल
की और क्षेत्रीय दलों को बल मिला।
क्षेत्रीय आकांक्षाएं और कभी-कभी क्षेत्रीय आशंकाएं भी राज्यस्तरीय दलों की शक्ति में वृद्धि का कारण बनी
हैं। द्रविड़ संस्कृति और आकांक्षाओं ने डीएमके को जन्म दिया और 'केन्द्र हम पर हिन्दी लाद देगा' इस
आशंका ने डीएमके और अन्ना डीएमके की शक्ति को बढ़ाया। यह भी तथ्य है कि किसी विशेष मुद्दे पर
केन्द्रीय सत्ता के विरोध और राज्य की स्वायत्तता का नारा लगाकर राज्यस्तरीय दल अपनी शक्ति में वृद्धि

राज्यस्तरीय दल

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कर लेते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में नगालैण्ड, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम आदि में तो
राज्यस्तरीय दल नितान्त स्वाभाविक हैं केन्द्र इन राज्यों की परिस्थितियों, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं
को समझ ही नहीं पाता ।
4. अवसरवादी राजनीति और राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों का अभाव – भारत के तथाकथित
राष्ट्रीय दलों के पास सम्पूर्ण देश के ‘आर्थिक उत्थान और सर्वांगीण विकास की कोई योजना हो, तो क्षेत्रीय
दलों की शक्ति में कोई कमी आएगी, लेकिन जब विचारधारा, नीति, सिद्धान्तों और आदर्शों का अभाव है,
सत्ता प्राप्ति एकमात्र लक्ष्य है तो क्षेत्रीय दलों का उदय तथा उनकी शक्ति में वृद्धि नितान्त स्वाभाविक है।
आज स्थिति यह है कि कांग्रेस या भाजपा इन दोनों में से किसी को भी भारतीय संघ के सभी राज्यों या
अधिकांश राज्यों में प्रभावी समर्थन प्राप्त नहीं है; इनमें से किसी के पास राष्ट्रीय नेता नहीं है, ऐसा नेता जो
पूरे देश की जनता को अपील कर सके।

गठबन्धन सरकार में क्षेत्रीय दलों के महत्व की विवेचना

क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय सरकार की कार्यप्रणाली को किस प्रकार प्रभावित करते हैं ? – 1996 से लेकर 15वीं
लोकसभा तक क्षेत्रीय दलों की शक्ति में निरन्तर वृद्धि के परिणामस्वरूप केन्द्र में एक दल की सरकार नहीं,
वरन् गठबन्धन सरकार का गठन होता था; जिसके अन्तर्गत कुछ क्षेत्रीय दल भी भागीदार होते थे। ऐसी
स्थिति में गठबन्धन सरकार सत्ता में भागीदार क्षेत्रीय दलों के दृष्टिकोण को अनदेखा नहीं कर सकती। क्षेत्रीय
दल सत्ता में भागीदार सबसे बड़े दल को या गठबन्धन सरकार के कार्यकरण को बातचीत के आधार पर
प्रभावित
करने की कोशिश करते थे तथा विशेष परिस्थितियों में सरकार पर दबाब डालकर उससे अपनी बात मनवा
हो सकता था । गठबन्धन सरकार सामान्यतया एक 'कमजोर सरकार' होती है, अतः वे क्षेत्रीय दल जो
सरकार में थे । यदि सत्ता में सहयोगी क्षेत्रीय दल सरकार से अपना समर्थन सहयोग वापस ले लें, तो सरकार
का पतन

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राज्यस्तरीय दल

भागीदार है, सरकार के कार्यकरण को प्रभावित कर सकते हैं।
को प्रभावित कर सकते हैं, बहुदलीय व्यवस्था होने तथा क्षेत्रीय दलों की शक्ति में वृद्धि हो जाने के कारण
क्षेत्रीय दल जो सत्ता में भागीदार नहीं हैं, वे भी विविध तरीकों से सरकार की नीतियों और कार्यप्रणाली
कोई भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय दल अधिक
से अधिक क्षेत्रीय दलों को अपने साथ रखने की कोशिश करते हैं। सत्ता उसी राजनीतिक दल को प्राप्त होनी
है, जिसके साथ लोकसभा में अधिक संख्या वाले क्षेत्रीय दल हों। 16वीं लोकसभा के चुनावों में तीन दशक
बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का नेतृत्व कर रही भाजपा को स्वयं अपनी 282 सीटों के साथ पूर्ण बहुम
प्राप्त हुआ है। अतः क्षेत्रीय दलों एवं गठबंधन के दलों को सरकार पर दबाव बनाने का मौका नहीं मिलेगा।
इस प्रकार लम्बे समय बाद देश में त्रिशंकु जनादेश का इतिहास टूटा है। यह हमारे लोकतंत्र व दलीय
व्यवस्था राज्यस्तरीय दलों का उदय तथा उनकी शक्ति में वृद्धि नितान्त स्वाभाविक और औचित्यपूर्ण (
राज्यस्तरीय दल व क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय एकता को कमजोर नहीं करते )
के लिये शुभ संकेत है।

राज्यस्तरीय दल

एक अरब बाइस करोड़ से अधिक जनसंख्या और भाषा, आचार-विचार और भौगोलिक तथा सामाजिक
परिस्थितियों में भेद तथा विविधताएं राज्यस्तरीय दलों को जन्म दें, उनकी शक्ति में वृद्धि हो यह मिलाक
स्वाभाविक है। प्रायः राज्यस्तरीय दलों की भूमिका को नकारात्मक दृष्टिकोण से देखने की हमारी आदत रही
है और हम आसानी से कह देते हैं कि राज्यस्तरीय दल तथा केन्द्र सरकार में उनकी भागीदारी राष्ट्रीय एकता
को कमजोर करते हैं। वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं है। भारत की संघात्मक व्यवस्था में राज्यस्तरीय दलों की
'महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका' रही है तथा आज भी वे इस भूमिका को निभा रहे हैं।
राज्यस्तरीय दलों के अस्तित्व के कारण ही भारतीय संविधान के संघात्मक प्रावधानों के क्रियान्वयन का
सफल परीक्षण हुआ है, केन्द्र की एकदलीय सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाने का रचनात्मक कार्य
सम्पन्न हुआ है तथा संविधान ने राज्यों को जो स्वायत्तता प्रदान की है, उसकी रक्षा सम्भव हो सकी है।
राज्यस्तरीय दलों के कारण अनेक राज्यों में 'प्रतियोगी दलीय प्रणाली' सामने आई, जिससे संसदीय व्यवस्था
का संचालन आसान हुआ है। इन दलों की सबसे बड़ी रचनात्मक भूमिका यह है कि इनके द्वारा राज्य विशेष
के लिए अधिकतम आर्थिक सुविधाओं की मांग की गई जिससे प्रादेशिक विषमता दूर हुई और भारत के
समुचित सर्वांगीण विकास को गति मिली। राज्यस्तरीय दलों के कारण ही विकास की अनेक योजनाओं और
कार्यक्रमों का क्रियान्वयन हुआ है।

राज्यस्तरीय दल

इस प्रकार राज्यस्तरीय दलों ने संविधान द्वारा प्रदत्त राज्यों की स्वायत्तता की रक्षा की है, संसदीय व्यवस्था
के सफल संचालन में सहायता की है तथा राज्यों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उत्तर
पूर्वी भारत के विभिन्न राज्यों में सक्रिय क्षेत्रीय दलों ने भारत सरकार को इस बात के लिए प्रेरित किया कि
इन राज्यों की विशेष परिस्थितियों और आकांक्षाओं को समझें । ये सभी बातें राष्ट्रीय एकता को मजबूत
करने में सहायक हुई हैं। इस प्रकार राज्यस्तरीय दलों का अस्तित्व तथा उनकी शक्ति नितान्त स्वाभाविक
और उचित है तथा इन दलों के कारण राष्ट्रीय एकता को कोई आघात नहीं पहुंचा, वरन् अधिकांश
परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को बल मिला है।                                                                                                                                                                                                                                                       RELETED LINK

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