सुशासन के लिए आवश्यक है नीतिगत समीक्षा
सुशासन शीर्ष अदालत का हालिया कथन है कि सरकार की नीतियों की आलोचना करने को सत्ता का विरोध नहीं कहा जा सकता उक्त कथन के आलोक में यह समझना आसान है कि नीतियों से सरकारें लोकहित को सुनिश्चित करती है और ऐसा ना होने की स्थिति में नीति समीक्षा स्वभाविक है जिसमें आलोचनात्मक पक्ष भी संभव है तो इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि सरकार या सत्ता का यहां विरोध है शोध और पड़ताल करके देखा जाए तो यह बहुत आयत में मिलेगा कीमत देखकर सत्ता की चौखट तक पहुंचाने वाला मतदाता अपनी ही सरकार की नीतियों का उधेड़बुन करता है और निहित मापदंडों में यदि वह हित के विरुद्ध है तो आलोचना करता है साफ है कि यह एक नीतिगत आलोचना है न कि सरकार पर कोई निजी दोषारोपण है एक नजरिया यह भी है कि लोक नीतियां आम आदमी के लिए बनाई जाती है उनका क्रियान्वयन किया जाता है तत्पश्चात उनका मूल्यांकन भी होता है कि आखिर इसमें निहित उद्देश्य मिला या नहीं। यदि उद्देश्य नहीं मिला तो अगली नीति में क्या सुधार करना है इसे समझाने का प्रयास होता है और ऐसी स्थिति में यदि मीडिया या आमजन इन खामियों को उजागर करता है या उस पर कोई भी सी टिप्पणी करता है तो इसे सीमित विवेकशीलता के दायरे में नीति तक ही समझा जाए ना कि सरकार की आलोचना या राष्ट्र विरोधी की संज्ञा में डाला जाए इतना ही नहीं भारत का सर्वोच्च कानून संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 19 (1)(क)में वाक् एवं अभिवृत्ति को जो स्वतंत्र मिली है उसका भी रास्ता बिना किसी रूकावट बरकरार रखता है भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी कठिनाइयों को खत्म करने का प्रयास समाप्त नहीं हुआ है भुखमरी गरीबी बेरोजगारी और महंगाई समेत कई बुनियादी और समावेशी समस्याओं से आज भी जनता कम ज्यादा उलझी हुई है ऐसे में सरकार की नीतियों भलाई की दृष्टि से कहीं अधिक प्रभावशाली होनी चाहिए बावजूद इसके यदि कोई कमी रह जाती है तो उस पर टीका टिप्पणी करना मतदाता का अधिकार है जो सुशासन की दृष्टि से कहीं अधिक समुचित भी है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 जून 2014 में कहा था कि अगर हम बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा और लोकतंत्र केवल नीतियों के समर्थन का पर्याय नहीं है यह उसके विरुद्ध आलोचना का मार्ग भी अपना सकता है गौरतलब है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न केवल मूल अधिकार है बल्कि संविधान का मूल ढांचा भी है और इससे जनता को न वंचित किया जा सकता है और नहीं रोका जा सकता है मगर इस बात से गुरेज नहीं है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बेजा होने से न केवल परिणाम खराब होंगे बल्कि लोग भी अनुत्पादक कहे जाएंगे कहा जाए तो शालीनता और संविधान की भावना के अंतर्गत की गई अभिव्यक्ति मर्यादित और सर्वमान्य है गौरतलब है कि 3 मार्च 2021 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया था कि सरकार से अलग विचार रखना देशद्रोह नहीं है बीते कुछ वर्षों में यह देखने को मिल रहा है कि कई प्रारूपों में वाक् एवं अभिव्यक्ति को लेकर देश का वातावरण गर्म हो जाता है जिसके चलते देशद्रोह के मुकदमों में भी बाढ़ आई है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी अधिकारो की जननी है इसी के चलते सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे जनमत को तैयार करते हैं सभी सरकार यह जानती है कि कई काम और बड़े काम करते समय नागरिकों के विचारों से संघर्ष रहेगा और आलोचनाएं भी होगी और यह आलोचनाएं सुधार की राह भी बताएगी और इन्हीं नीतिगत आलोचनाओं के बीच सुशासन की राशि कितनी होती है लोकतंत्र और व्यक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं एक पर आंच आती है तो दूसरी पर इसकी तफ्तीश का असर पड़ता ही है पड़ताल बताती है कि आंदोलनकारियों छात्रों बुद्धिजीवियों किसानों मजदूरों लेखको पत्रकारों कवियों राजनीतिज्ञों और कई एक्टिविस्ट पर राजद्रोह के आरोप वाली गाज गिरती रही हैं से लेकर कोई भी सरकार साफ सुथरी नहीं है देश में परंपरागत मीडिया के अलावा सोशल मीडिया और न्यू मीडिया समेत कई संचार उपक्रम देखे जा सकते हैं इससे अभिव्यक्ति ने केवल मुखर हुई है बल्कि वैश्विक स्वरूप लिए हुए हैं सोशल मीडिया मानो आवेश से भरा एक ऐसा प्लेटफार्म है जहा सच्चाई के साथ झूठ की अभिव्यक्ति स्थान लिए हुए हैं हालांकि इस की कटाई चटाई के मामले में भी सतर्कता बरतने का प्रयास किया जा रहा हैं
भारतीय गैंडे
सुशासन
फरवरी 2021 में सरकार ने इस पर कुछ कठोर कदम उठाने का संकेत दिया था देश में अभिव्यक्ति बहुत मुखर और आक्रामक होने की बड़ी वजह भौतिक स्पर्धा के अलावा लोकतंत्र के प्रति जागरूकता भी है लेकिन यह कहीं अधिक आक्रामक रूप लेती जा रही है ऐसे में सरकारों को भी यह सोचने समझने की आवश्यकता है कि देश को कैसे आगे बढ़ाया जाए और जनता को लोकतंत्र की सीमाओं में रहते हुए कैसे मर्यादित बनाएं किसी भी सभ्य देश के नागरिक समाज को ही नहीं बल्कि सरकारों को भी विपरीत विचार आलोचना या समालोचना को लेकर संवेदनशील होना चाहिए हालांकि आक्रामकता भी लोकतंत्र की शालीनता ही है बशर्ते इसकी अभिव्यक्ति देशहित में हो सरकार भी गलतियां करती है इसके पीछे भले ही परिस्थितियां जवाब दे हो पर इतिहास गलतियों को याद रखता है परिस्थितियों को नहीं। राहुल गांधी बहुत पहले से ही यह कह चुके हैं कि आपातकाल एक गलती थी इस बात को पुख्ता करता है सरकार के फैसले भी कई प्रयोगों से गुजरते हैं ऐसे में जनहित को सुनिश्चित कर पाना बड़ी चुनौती रहती है लोक नीतियों को लोगों तक पहुंचा कर उनके अंदर शांति और खुशियां बांटना सरकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही है यदि ऐसा नहीं होता है तो आलोचना स्वभाविक है सरकार बरसों बरस काम करती है और सैकड़ों और हजारों फैसलो से गुजरती है उन्हीं में से कुछ नीतिगत फैसले जाने अनजाने में जनहित को सुनिश्चित करने में कमतर रह जाते हैं ऐसे में आलोचनात्मक किरकिरी होना स्वभाविक है मगर इसका यह तात्पर्य नहीं है कि यह सरकार का विरोध है समझने वाली बात यह भी है कि अच्छे कार्य के लिए जनता सरकार की पीठ थपथपाते है और प्रचंड बहुमत देकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाती है तो खराब काम के लिए आलोचना उसका अधिकार हैं इस उदाहरण से बात को और आसानी से समझा जा सकता है कि भारत में क्रिकेट एक धर्म के रूप में जाना और समझा जाता है जब यही खिलाड़ी पाकिस्तान या किसी अन्य देश से हार जाते हैं तो देश की जनता व आमजन इनकी चौक और चौराहों पर न केवल आलोचना करते हैं बल्कि इनके खिलाफ बिगुल फूंक देते हैं लेकिन यही जनता जीत की स्थिति में खिलाड़ियों को सर आंखों पर बिठाती है इस उदाहरण से मात्र इतना कहना है कि सरकार माई बाप होती है उसे बेइंतहा उम्मीद होती है उसकी नीतियों के समर्थन में होना पूरी सरकार के विरोध में होने जैसा कुछ भी नहीं है ऐसे में सरकार को भी यह समझना चाहिए कि वह मतदाता का दृष्टिकोण है जो नीतिगत जिसे सत्ता का विरोध नहीं समझने की उदारता दिखानी चाहिए देखा जाए तो शीर्ष अदालत ने इस मामले में एक बार फिर अपनी दृष्टि डालकर फिर से लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता की आवश्यकता और जनता की भूमिका को बड़ा बना दिया है SABHAR DR.Sushil Kumar Singh
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