महिला साक्षरता वह चुनौतियां
महिला साक्षरता वह चुनौतियां भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा शोध तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक सामुदायिक सेवा और सामुदायिक जिम्मेदारी से निहित शिक्षा ना हो ठीक उसी प्रकार शैक्षणिक दुनिया तब तक पूरी नहीं कही जा सकती जब तक स्त्री शिक्षा की भूमिका पुरुष की भांति मजबूत नहीं हो जाती आज यह सिद्ध हो चुका है की अर्जित ज्ञान का लाभ कहीं अधिक मूल्ययुक्त है ऐसे में समाज के दोनों दोनों भाग यदि इसमें बराबर की शिरकत करते हैं तो लाभ भी चौगुना हो सकता है देखा जाए तो 19 वी शताब्दी की कोशिशों ने नारी शिक्षा को उत्साह वर्धन बनाया है
महिला साक्षरता
भारत में महिलाओं की स्थिति
इस सदी के अंत तक देश में कुल 12 कॉलेज 467 स्कूल और 5628 प्राइमरी स्कूल लड़कियों के लिए थे जबकि छात्रों की संख्या 4.5लाख के आसपास थी औपनिवेशिक काल के उन दिनों में जब बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराइयां मौजूद थी और समाज भी रूढ़िवादी परंपराओं से जकड़ा हुआ था बावजूद इसके राजा राममोहन राय ईश्वरचंद्र विद्यासागर इतिहास पुरुषों ने नारी उत्थान को लेकर समाज और शिक्षा दोनों क्षेत्रों में काम किया है नतीजे के तौर पर नारियां उच्च शिक्षा की ओर न केवल अग्रसर हुई बल्कि देश में शैक्षणिक लिंगभेद व असमानता भी कम हुई है हालांकि मुस्लिम छात्राओं का अभाव उन दिनों बखूबी रूप में बरकरार था वैश्विक स्तर पर 19वीं सदी के उस दौर में इंग्लैंड फ्रांस जर्मनी में लड़कियों के लिए अनेक कॉलेज खुल चुके थे कोशिश की जा रही थी कि नारी शिक्षा भी समस्त शाखा में दी जाए। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में यह आधार बिंदु तय हो चुका था कि पूर्व शैक्षणिक व्यवस्थाओं के चलते यदि नारी शिक्षा के क्षेत्र में अतिरिक्त वजनदार सिद्ध होगी सामाजिक जीवन के लिए यदि रोटी कपड़ा मकान के बाद ज्यादा चीज उपयोगी है तो वह शिक्षा ही हो सकती थी सदी के दूसरे दशक में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में लेडी हार्डिंग कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालय की स्थापना इस दिशा में उठाया गया बेहतरीन कदम था आजादी के दिन आते-आते विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली छात्राओं की संख्या 42 लाख के आस पास हो गई थी और इसमें तकनीकी और व्यवसाय शिक्षा का भी मार्ग प्रशस्त हुआ इस दौर तक संगीत और नृत्य की विशेष प्रगति को भी हो चुकी थी 1948 _49 के विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने नारी शिक्षा के संबंध में कहा था कि नारी विचार तथा कार्य क्षेत्र में समानता प्रदर्शित कर चुकी है अब उसे नारियों के आदर्श के अनुकूल रूप से विचार शिक्षा पर विचार करना चाहिए। स्वतंत्रता के 10 वर्ष के बाद छात्रों छात्राओं की संख्या कुल 88 लाख के आसपास हो गई और इनका प्रभाव प्रत्येक क्षेत्र में दिखने लगा वर्तमान में स्त्री शिक्षा सरकार समाज और संविधान की कोशिशों के चलते कहीं अधिक उत्थान की ओर है।
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महिला साक्षरता
90 के दशक के बाद उदारीकरण के चलते शिक्षा में भी परिवर्तन हुआ एक बड़ा हिस्सा नारी क्षेत्र को भी जाता है वस्तु स्थिति है कि पुरुष स्त्री समरूप शिक्षा के अंतर्गत कई आयामों का रास्ता खुला हैं इस डर को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आपस में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है आज आर्थिक उदारवाद, ज्ञान के प्रसार और तकनीकी विकास के साथ संचार माध्यमों के चलते अर्थ और लक्ष्य दोनों बदल गए। इसी के अनुपालन में शिक्षा और दक्षता का विकास भी बदलाव ले रहा है इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि तकनीकी विकास ने परंपरागत शिक्षा को पीछे छोड़ा दिया है और इस सच से भी किसी को गुरेज नहीं होगा। की परंपरागत शिक्षा में स्त्रियों की भूमिका अधिक रही है अब भारत को शैक्षणिक मुख्यधारा में पूरी कुवत के साथ कैसे जुड़ जाए बदलती हुई स्थितियां ही आग्रह कर रही है कि पुराने प्रचलन अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसकी सबसे ज्यादा चोट स्त्री शिक्षा पर होगी यद्यपि विज्ञान के उत्थान और बढ़ोतरी के चलते कुछ चमत्कारी उन्नति भी हुई है स्वतंत्रता के पश्चात महिलाओं की साक्षरता दर महज 8.6 फ़ीसदी थी 2011 की जनगणना के अनुसार 65 फ़ीसदी से अधिक महिलाएं शिक्षित है पर सशक्तिकरण को लेकर असमंजस अभी भी बरकरार है इसके पीछे एक बड़ी वजह नारी शिक्षा परंतु जिस भारतीय नारी शिक्षा और रोजगार को लेकर बहुआयामी दृष्टिकोण का विकास हो रहा है विगत कुछ वर्षों के आंकड़े देखें तो उच्च शिक्षा में कुल नामांकन का लगभग 47% महिलाएं हैं जबकि कामगार की दृष्टि से यह एक चौथाई से अधिक है 2011 की जनगणना में मोदी सरकार द्वारा किया गया था जिसे देखने से पता चलता है कि लिंगानुपात की स्थिति बेहद चिंताजनक है सर्वाधिक गौर करने वाली बात यह है कि सिख, हिंदू और मुस्लिम समुदाय को इस स्तर पर बेहद सचेत होने की आवश्यकता है इसमें भी स्थिति सबसे खराब सिखों की है सिखों की है जहां 47.44 फ़ीसदी महिलाएं जबकि हिंदू महिलाओं की संख्या 48.42% है वही मुस्लिम महिलाएं 48.75% है केवल ईसाई महिलाओं की स्थिति ठीक-ठाक है और पक्ष में कहीं जा सकती है देखा जाए तो समस्याओं में एक उनकी पैदाइश के साथ सुरक्षा का है दूसरे शिक्षा के साथ केरियर और सशक्तिकरण की है रोचक तथ्य वह है कि यह दोनों तभी हल हो सकती है जब पुरुष मानसिकता कहीं अधिक उदारता के साथ उन्हें आगे बढ़ाने की हो मानव विकास सूचकांक को तैयार करने का कार्य 1990 से किया जा रहा है ठीक 5 वर्ष बाद 1995 में जेंडर संबंधी सूचकांक का भी उद्भव देखा जा सकता है जीवन प्रत्याशा आय और स्कूल नामांकन तथा परिपक्वता, साक्षरता के आधार पर पुरुषों से तुलना की जाए तो आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं नारियों की स्थिति को लेकर अभी बहुत काम करना बाकी है विकास की राजनीति कितनी भी परवान क्यों ना चढ़ जाए स्त्री शिक्षा और सुरक्षा आज भी महकमे के लिए यक्ष प्रश्न बने हुए हैं स्वतंत्रता से लेकर अब तक लिंगानुपात काफी हद तक निराश ही किया है हालांकि साक्षरता के मामले में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ से लेकर कई ऐसे कार्यक्रम को विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है जिससे इस दिशा में और बढ़त मिल सके फिर भी कई असरदार कार्यक्रमों और परियोजनाओं को नवीनता के साथ लाने की जगह आगे भी बनी रहेगी साथ ही उनका क्रियान्वयन भी समुचित हो जिसे की शैक्षिक दुनिया में नारी को और अधिक अवसर मिल सके
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आगे की दिशा।
आंकड़े बताते हैं कि 1947 से 80 के दशक के बीच उच्च शिक्षा में स्त्रियों की संख्या 18 गुना बढ़ी थी और अब तो इसमें और तेजी आई है पर खलने वाली बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की शिक्षा व्यवस्था कई देश पिछड़े हुए हैं विश्वविद्यालय जिस सरोकार के साथ शिक्षा व्यवस्था को अनवरत बनाए हुए हैं उससे तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि संकलित सूचना और ज्ञान मात्र को ही यह भविष्य की पीढ़ियों में स्थानांतरित करने में लगे हुए हैं इससे पूरा काम न तो होगा कैरियर के विकास में स्त्रियों की छलांग बहुआयामी हुई है पर इसके साथ पति, बच्चो वह परिवार के साथ तालमेल बिठाना भी चुनौती रही है काफी हद तक उनकी सुरक्षा को लेकर भी चिंता लाजमी है। SHABAR SUSIL SINGH RELATED LINK