वन नेशन वन इलेक्शन भारत में हर साल किसी ने किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं मौजूदा समय में देखें तो लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश ,तेलंगाना, उड़ीसा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा के चुनाव संपन्न कराए जाते हैं। जबकि 28 राज्य में से 23 राज्य और दो केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी और दिल्ली के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं। खास बात यह भी है कि लोकसभा चुनाव के 6 महीने पहले छत्तीसगढ़ राजस्थान मध्य प्रदेश और तेलगाना का चुनाव हो चुका है।
वन नेशन वन इलेक्शन
इस साल अप्रैल में लोकसभा का चुनाव होना है। इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव के 6 महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा का चुनाव होना है। यदि राज्यों को लोकसभा के साथ जोड़कर चुनाव कराया जाए तभी भी कम से कम छह राज्य एक चुनाव में आ सकते हैं कहा जाए तो देश हमेशा चुनावी मोड में ही रहता है। सितंबर 2023 को मोदी सरकार ने वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर एक कदम और तब बढ़ा दिया जब विधि मंत्रालय ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर दी। कमेटी में सात अन्य सदस्य भी शामिल है एक देश एक चुनाव की वकालत स्वयं प्रधानमंत्री मोदी भी 2020 में पहले ही कर चुके हैं हालांकि 1983 में भी भारत निर्वाचन आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव दिया था जिसका जिक्र विधि आयोग की 1999 की रिपोर्ट में भी है इसके पीछे सबसे बड़ा कारण चुनावी खर्च को बचाने को माना जा रहा है।
वन नेशन वन इलेक्शन // लोक सभा चुनाव पर कितना खर्चा होता है।
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव में एक बड़ा खर्चा आता है गौरतलब है कि 1951 52 के चुनाव में जहां 11 करोड रुपए खर्च हुए थे। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में आंकड़ा 60000 करोड़ की भारी भरकम राशि खर्च भी हुआ है इसके अलावा 28 राज्यों और दो केंद्र शासित दिल्ली और पुडुचेरी के विधानसभा चुनाव भी अलग-अलग खर्चों से पटे हैं जाहिर है की संरचनात्मक व तकनीक और तौर पर चुनाव आयोग को सशक्त करने के साथ-साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करना मशीनरी,समय ,खजाना तीनों की सेहत के लिए ठीक हो सकता है वैसे वन नेशन वन इलेक्शन कोई नई बात नहीं है स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1951 52 1957 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे। 1968 और 1969 में कई विधानसभा में समय से पहले ही भंग हो गई थी और लोकसभा की समय से पहले 1970 में भंग हो गई फल स्वरुप वन नेशन वन इलेक्शन की परंपरा यही से बिखर गई है।
चुनाव आयोग
अलबत्ता 1999 की विधि आयोग की 170 वी रिपोर्ट में स्पष्ट होता है कि हर साल और सत्र के बाहर चुनाव के चक्कर को समाप्त किया जाना चाहिए 2015 की संसदीय स्थाई समिति की रिपोर्ट में भी एक चुनाव करने की व्यवस्था पर अपनी राय मुखर की जिसमें समिति ने भारी खर्च आचार संहिता को बनाए रखना आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति पर प्रभाव और चुनाव के दौरान मानव शक्ति पर अतिरिक्त भोज बढ़ना आदि की पहचान की थी 2018 की विधि आयोग की एक रिपोर्ट में भी एक साथ चुनाव एक बेहतर मसौदा था इसमें कहा गया कि संविधान के मौजूदा ढांचे के तहत एक साथ चुनाव नहीं कराया जा सकते संविधान लोग प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में उचित संशोधन के मामले में एक साथ चुनाव कराया जा सकते हैं आयोग ने यह भी बताया था कि कम से कम 50 फीसदी राज्यों को संवैधानिक संशोधन की पुष्टि करनी चाहिए। फिलहाल लगभग लोकसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े देश में एक साथ चुनाव की बात जोर ले चुकी है। मानसून सत्र के दौरान केंद्रीय कानून मंत्री ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान के अनुच्छेद 83,85,172,174 और 365 में भी संशोधन करना होगा।
एक साथ चुनाव कराने के फायदे और क्या नुकसान होंगे।
एक साथ चुनाव के फायदे अनेक है मगर क्या इसका कोई नुकसान भी हो सकता है ऐसा माना जा रहा है कि लोकसभा के चुनाव के अलग-अलग एजेंडे होते हैं जबकि विधानसभा के चुनाव के लिए अलग चुनौतियां होती है इसमें क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है दक्षिणी अफ्रीका ,स्वीडन, बेल्जियम जैसे कई देश एक साथ चुनाव करते हैं कुछ देश तो संसद से लेकर नगर पालिका तक एक साथ ही चुनाव में रहते हैं जर्मनी, फिलीपींस और ब्राजील से देश एक साथ चुनाव करते हैं ऐसे में संविधान की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए एक साथ चुनाव वाली अवधारणा को जमीन पर उतरना उचित होगा वैसे ज्यादातर संविधानविद भारतीय संदर्भ में इस प्रस्ताव को जमीन पर उतरने को आसान नहीं मानते हैं।
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